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उत्तराखंड, टिहरी गढ़वाल के मलेथा गांव में रहते थे तत्कालीन श्रीनगर गढ़वाल के पंवार वंशीय शासक के सेनाध्यक्ष श्री कालोसिंह भंडारी। उनके कार्यों से प्रभावित होकर राजा ने उन्हें सोण बाण की उपाधि और काफी जमीन जागीर के रूप में दी। इस जमीन पर उनके 9 खारी स्यारे यानी की धान के खेत भी थे।
1595 ईस्वी में उनके पुत्र हुए माधो सिंह भण्डारी जो उन्ही की तरह पराक्रमी योद्धा थे। माधोसिंह 1629 से 1644 तक पंवार वंशीय राजा महीपत शाह के सेनाध्यक्ष रहे। इन्होंने तिब्बती सरदारों को पीछे खदेड़कर गढ़वाल तिब्बत सीमा को पुनर्स्थापित किया। आज भी यह सीमा रेखा मैक मोहन रेखा नाम से प्रसिद्ध है और माधोसिंह भंडारी के सीमा स्तंभ आज भी यहां सुरक्षित हैं। इन्होंने कई। वीरता पूर्वक कार्य करे और कई किले बनाने में सहायता भी की।
इनका विवाह कुमाऊनी राजकुमारी उदीना से हुआ। एक बार ए अपने घर मलेथा छुट्टी पर आए तो प्रतिदिन उन्हें रूखी सूखी रोटी दी गई, दाल या सब्जी नहीं इस पर राजदरबार में स्वादिष्ट खाना खाने के आदी माधोसिंह ने अपनी पत्नी पर गुस्सा किया तो उनकी पत्नी ने कहा की जब खेत रूखे सूखे होंगे तो खाना मीठा कहां से होगा? सामने बैठी उनकी भाभी ने कहा की तुम्हारे गांव में कौन सी पानी की कूल यानी कि नहर है ? जो तुम्हारे यहां सब्जी की क्यारियां हों? इसपर माधोसिंह ने प्रतिक्रिया दी कि भाभी अपने कूल क्यों नहीं बनाई? तो भाभी ने ताना मारते हुए कहा कि अगर तुम जैसे भड़ वीर के होते हुए भी हमे कूल बनानी पड़े तो धिक्कार है तुम्हें। तुम अपने नाम के साथ आज के बाद सिंह शब्द मत जोड़ना। ये बात माधो सिंह को अंदर तक चुभ गई। अगले दिन प्रातः होते ही उन्होंने मलेथा में पानी की कूल की बात राजदरबार में उठाई पर किसी ने भी उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया। थक हारकर माधो सिंह ने स्वयं गैंती फावड़ा उठाकर छेणाधार नामक पहाड़ के नीचे चंद्रभागा नदी से ane वाली कूल से सुरंग बनाना प्रारंभ कर दिया। उनकी मेहनत देखकर गांव वाले भी उनके साथ हो लिए।
इस प्रकार 225 फीट लंबी, 3फीट चौड़ी और 3 फीट ऊंची सुरंग बनकर तैयार हो गई जिसके ऊपरी भाग में बड़े बड़े पथरों को लोहे की मजबूत कीलों से बांधा गया ताकि प्राकृतिक आपदा भी सुरंग का कुछ ना बिगाड़ सके।
पर यह सब बेकार सिद्ध हुआ क्योंकि सुरंग में पानी नहीं चढ़ा।
एक दिन माधोसिंह को सपने में बताया गया कि तुम्हे देवी को खुश करने के लिए नरबलि देनी होगी। जब उन्होंने यह बात अपनी पत्नी को बताई तो पास में बैठे उनके 11वर्षीय पुत्र ने यह सब सुन लिया। पिता की मेहनत का मजाक ना बन जाए यह सोचकर उन्होंने अपने माता पिता को स्वयं की बलि देने के लिए राजी कर दिया।
कठोर मन से माधोसिंह ने गजे सिंह का शीश काटकर सुरंग के मुहाने पर रख दिया । इस बार सुरंग में पानी चढ़ गया और शीश को अपने साथ बहाकर खेतों तक ले गया। आज भी उस खेत में बकरी की बलि दी जाती है।
इस घटना के बाद माधोसिंह दुखी मन से श्रीनगर लौट गए और फिर कभी दुबारा लौटकर वापस गांव नहीं आए।