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राजविद्याराजगुह्ययोग
श्रीमद्भगवद्गीताके नवम अध्यायमें भगवानने जो उपदेश दिया है, उसको उन्होंने सब
विद्योअोंका और समस्त गुप्त रखने योग्य भावोंका राजा बतलाया है। इसलिए एस अध्याय का
नाम राजविद्याराजगुह्ययोग रखा गया है।
इस अध्याय के पहले और दूसरे श्लोकोंमें अर्जुनको पुनः विज्ञानसहित ज्ञानका उपदेश
करनेकी प्रतिज्ञा करके उसका माहात्म्य बतलाया है। तीसरेमें उस उपदेशमें श्रद्धा न रखनेवालोंके
लिए जन्ममरणरूप संसारचक्रकी प्राप्ति बतलायी गयी है। चौथेसे छठेतक भगवानके निराकाररूप
की व्यापकता और निर्लेपताका वर्णन करते हुए भगवानकी ईश्वरीय योगशक्तिका दिग्दर्शन
कराकर उसी स्वरूपमें समस्त भूतोंकी स्थिति वायु और आकाशके दृष्टान्तपूर्वक बतलायी गयी
है। तदनन्तर सातवेंसे दसवेंतक महाप्रलयके समय समस्त प्राणियोंका भगवानकी प्रकृतिमें लय
होना और कल्पोंके आदिमें पुनः भगवानके सकाशसे प्रकृतिद्वारा उनका रचा जाना एवं इन सब
कमाXको करते हुए भी भगवानका उनसे निर्लिप्त रहना बतलाया गया है। ग्यारहवें और बारहवेंमें
भगवानके प्रभावको न जाननेके कारण उनका तिरस्कार करनोवालोंकी निन्दा करके तेरहवें और
चौदहवेंमें भगवानके प्रभावको जाननेवाले अनन्य भक्तोंके भजनका प्रकार बतलाया गया है।
पंद्रहवेंमें एकत्वभावसे ज्ञानयज्ञके द्वारा ब्रह्मकी उपासना करनेवाले ज्ञानयोगियोंका और विश्वरूप
परमेश्वरकी उपासना करनेवालोंका वर्णन किया गया है। तदनन्तर सोलहवेंसे उन्नीसवेंतक भगवानने
अपने गुण, प्रभाव और विभूतिसहित स्वरूपका वर्णन करते हुए कार्य-कारणरूप समस्त जगतको
भी अपना स्वरूप बतलाया है। बीसवें और इक्कीसवेंमें स्वर्गभोगके लिये यज्ञादि कर्म
करनेवालोंके आवागमनका वर्णन करके बाईसवेंमें निष्कामभावसे नित्य-निरन्तर चिंतन करनेवाले
अपने भक्तोंका योगक्षेम स्वयं वहन करनेकी प्रतिज्ञा की है। तेईसवेंसे पचीसवेंतक अन्य
देवताअोंकी उपासनाको भी प्रकारान्तरसे अविधिपूर्वक अपनी उपासना बतलाकर तथा भगवानको
तत्त्वसे न जाननेकी बात कहकर उसका फल उन-उन देवताअोंकी प्राप्ति और अपनी उपासनाका
फल अपनी प्राप्ति बतलाया है। छब्बीसवेंमें भगवद्भक्तिकी सुगमता दिखलाकर सत्ताईसवेंमें
अर्जुनको सब कर्म भगवदर्पण करनेके लिये कहा है और अùाईसवें उसका फल अपनी प्राप्ति
बतलाया है। उनतीसवेंमें अपनी समताका वर्णन करके तीसवें और इकतीसवेंमें दुराचारी होनेपर
भी अनन्य भक्तके भगवानके भजनका महत्त्व दिखलाया है। बत्तीसवेंमें अपनी शरणागतिसे स्त्री,
वैश्य, शूद्र और चाण्डालादिको भी परम गतिरूप फलकी प्राप्ति बतलायी है। तैतीसवें और
चौतीसवेंमें पुण्यशील ब्रह्मण और राजर्षि भक्तजनोंकी बड़ाई करके शरीरको अनित्य बतलाते हुए
अर्जुनको अपनी शरण होनेके लिये कहकर अङ्गोसहित शरणागतिके स्वरूपका निरूपण करके
अध्यायका उपसंहार किया गया है।
ॐ तत् सत्