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गरीबी, भूख, अत्याचार, कुशासन के खिलाफ जमकर बरसने वाले बाबा नागार्जुन का जन्म 30 जून 1911 को बिहार के मधुबनी जिले के सतलखा गांव में हुआ। उनका असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था लेकिन हिंदी साहित्य में 'नागार्जुन' और मैथिली में 'यात्री' नाम से उन्होंने कविताएं लिखीं। पिता कृषक थे और आजीविका चलाने के लिए आस-पास के गावों पुरोहिती भी कर लिया करते थे। सन् 1935 में श्रीलंका गये जहां उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण कीऔर बैद्यनाथ नाम त्यागकर "नागार्जुन" नाम ग्रहण किया ।
जब वह बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर वापिस स्वदेश लौटे तो उनके जाति भाई ब्राह्मणों ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया। लेकिन बाबा ने ऐसी बातों की कभी परवाह नहीं की। राहुल सांस्कृत्यायन के बाद हिन्दी के सबसे बडे़ घुमक्कड़ साहित्यकार होने का गौरव भी बाबा को ही प्राप्त है। बाबा की औपचारिक शिक्षा अधिक नहीं हो पायी। उन्होंने जो कुछ सीखा जीवन अनुभवों से सीखा और वही सब लिखा जो हिंदी कविता के लिए अमूल्य धरोहर हैं।
स्पष्ट विचार, धारदार टिप्पणी, गरीबों और मजलूमों की आवाज उनकी कविताओं में प्रमुखता से शामिल रही। हिंदी कविता में सही मायनों में कबीर के बाद कोई फक्कड़ और जनकवि कहलाने का उत्तराधिकारी हुआ तो वो थे बाबा नागार्जुन। घुमक्कड़ी स्वभाव और फक्कड़पन के बीच बाबा के मन में एक बेचैनी थी जो उनकी कविताओं में साफ दिखाई पड़ती है। बाबा, सामाजिक सरोकारों के कवि थे। आजादी के बाद जो मोहभंग की स्थिति हुई उससे उनको बड़ी पीड़ा होती थी। भ्रष्टाचार और बेईमानी से बड़े खिन्न होते थे। लेकिन मुखर होकर शासन की करतूतों को अपनी कविता में शामिल करते थे।
घुमक्कड़ी स्वभाव के थे इसलिए लगातार यात्राएं करते रहते थे, लेकिन समाज के पिछड़े, वंचित तबकों और गरीबों के लिए उनकी चिंता जगजाहिर थी। 1941 के आस-पास जब बिहार में किसान आंदोलित हुए तो बाबा भी सब कुछ छोड़कर आंदोलन का हिस्सा बन गये और जेल भी गये। अपनी बेबाकियों में एक स्वप्न वो हमेशा देखा करते थे समता मूलक समाज के लिए। बाबा हमेशा कहा करते थे कि हमने जनता से जो लिया है उसे कवि के रूप में जनता को लौटाना होगा। इसीलिए उनकी कविताएं सत्ता से सीधे सवाल करती थीं, टकराती थीं।
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