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अवसाद के बढ़ते लक्षणों के लिए एंटी-डिप्रेसेंट दवाओं को इलाज के तौर पर दिया जाता है. लेकिन वे कितनी कारगर हैं, यह अब भी बहस का विषय है. यह हम जानते हैं कि हल्के से मध्यम डिप्रेशन के मामलों में प्लेसीबो उतना ही प्रभावी हो सकता है, जितनी ये दवाएं. फिर भी 1990 के दशक की तुलना में, जर्मनी में अवसाद के लिए दवा दिए जाने की संभावना आठ गुना बढ़ चुकी है.
2008 में बड़े पैमाने पर हुए एक अध्ययन से पता चला कि हल्के और मध्यम अवसाद के मामलों में प्लेसीबो एंटी-डिप्रेसेंट दवाओं जितना ही प्रभावी था. लेकिन फिर भी, हर साल डॉक्टर इतनी एंटी-डिप्रेसेंट दवाएं लिखते हैं कि जर्मनी के 8 करोड़ लोगों को दो हफ्ते तक दवा देने का कोटा पूरा हो जाए.
तो, मरीजों पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है? ऐसी विवादास्पद दवाएं इतनी सफल कैसे हैं?
“कई सालों से, अवसाद से निपटने की प्रक्रिया में दवाएं मेरी वफादार साथी रही हैं." 52 साल की क्रिस्टीने ने अवसाद के कारण अपनी नौकरी खो दी, सात बार मनोरोग क्लीनिक गईं और आज कहती हैं, "मुझे परवाह नहीं है कि अध्ययन क्या कहते हैं, मुझे लगता है कि मेरी दवा काम कर रही है.”
ज्यादातर एंटी-डिप्रेसेंट दवाएं दिमाग के कुछ न्यूरोट्रांसमीटरों के स्तर को बदल देती हैं, खास तौर पर सेरोटोनिन को. हालांकि, लंबे समय तक यह माना जाता था कि अवसाद सेरोटोनिन के कम हो जाने के कारण होता है. यह सिद्धांत अब गलत साबित हो गया है. डॉक्टर और वैज्ञानिक अभी भी यह नहीं समझ पाए हैं कि अवसाद के दौरान मस्तिष्क में क्या होता है लेकिन इससे एंटी-डिप्रेसेंट दवाओं की बढ़ती बिक्री में कोई कमी नहीं आई.
42 वर्षीय मैरी उस दिन को कोसती हैं जब उन्होंने एंटी-डिप्रेसेंट लेना शुरू किया. वह कहती हैं, "उन्होंने मेरे जीवन को बेहतर नहीं किया बल्कि इसे और खराब कर दिया है.” मैरी चार सालों में धीरे-धीरे अपनी खुराक कम कर रही हैं, लेकिन उसका शरीर साथ नहीं दे रहा है. जर्मनी में एंटी-डिप्रेसेंट के प्रमुख विशेषज्ञों में से एक, प्रोफेसर टॉम बशॉर कहते हैं, "अब तक, इन समस्याओं को पूरी तरह से कम करके आंका गया है."
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