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During the festival, three deities (Jagannath, his brother Balabhadra and sister Subhadra) are drawn by a multitude of devotees in three massive, wooden chariots on bada danda (the grand avenue) to Gundicha Temple whereby they reside there for a week and then return to the Jagnannath temple.
इस मन्दिर के उद्गम से जुड़ी परम्परागत कथा के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की इन्द्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। यह इतनी चकचौंध करने वाली थी, कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा। मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूर्ति दिखाई दी थी। तब उसने कड़ी तपस्या की और तब भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाये और उसे एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा। उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया। उसके बाद राजा को विष्णु और विश्वकर्मा बढ़ई कारीगर और मूर्तिकार के रूप में उसके सामने उपस्थित हुए। किन्तु उन्होंने यह शर्त रखी, कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बन्द रहेंगे और राजा या कोई भी उस कमरे के अन्दर नहीं आये। माह के अंतिम दिन जब कई दिनों तक कोई भी आवाज नहीं आयी, तो उत्सुकता वश राजा ने कमरे में झाँका और वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया और राजा से कहा, कि मूर्तियाँ अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने थे। राजा के अफसोस करने पर, मूर्तिकार ने बताया, कि यह सब दैववश हुआ है और यह मूर्तियाँ ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जायेंगीं। तब वही तीनों जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ मन्दिर में स्थापित की गयीं।
चारण परम्परा मे माना जाता है की यहाँ पर भगवान द्वारिकाधिश के अध जले शव आये थे जिन्हे प्राचि मे प्रान त्याग के बाद समुद्र किनारे अग्निदाह दिया गया (किशनजी, बल्भद्र और शुभद्रा तिनो को साथ) पर भरती आते ही समुद्र उफान पर होते ही तिनो आधे जले शव को बहाकर ले गया ,वह शव पुरि मे निकले ,पुरि के राजा ने तिनो शव को अलग अलग रथ मे रखा (जिन्दा आये होते तो एक रथ मे होते पर शव थे इसिलिये अलग रथो मे रखा गया)शवो को पुरे नगर मे लोगो ने खुद रथो को खिंच कर घुमया और अंत मे जो दारु का लकडा शवो के साथ तैर कर आयाथा उशि कि पेटि बनवाके उसमे धरति माता को समर्पित किया, आज भी उश परम्परा को नीभाया जाता है पर बहोत कम लोग इस तथ्य को जानते है, ज्यादातर लोग तो इसे भगवान जिन्दा यहाँ पधारे थे एसा ही मानते है, चारण जग्दम्बा सोनल आई के गुरु पुज्य दोलतदान बापु की हस्तप्रतो मे भी यह उल्लेख मिलता है|