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केदारनाथ अग्रवाल प्रमुख हिन्दी कवि थे। १ अप्रैल १९११ को उत्तर प्रदेश के बांदा जनपद के कमासिन गाँव में हनुमान प्रसाद गुप्ता व घसीटो देवी के घर हुआ था।
केदार जी के पिताजी स्वयं कवि थे और उनका एक काव्य संकलन ‘मधुरिम’ के नाम से प्रकाशित भी हुआ था। केदार जी का आरंभिक जीवन कमासिन के ग्रामीण माहौल में बीता और शिक्षा दीक्षा की शुरूआत भी वहीं हुई। तदनंतर अपने चाचा मुकुंदलाल अग्रवाल के संरक्षण में उन्होंने शिक्षा पाई। क्रमशः रायबरेली, कटनी, जबलपुर, इलाहाबाद में उनकी पढ़ाई हुई। इलाहाबाद में बी.ए. की उपाधि हासिल करने के पश्चात् क़ानूनी शिक्षा उन्होंने कानपुर में हासिल की। तत्पश्चात् बाँदा पहुँचकर वहीं वकालत करने लगे थे।
केदारनाथ का इलाहाबाद से गहरा रिश्ता था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान ही उन्होंने कविताएँ लिखने की शुरुआत की। उनकी लेखनी में प्रयाग की प्रेरणा का बड़ा योगदान रहा है।
मार्क्स के शब्दों को एक दूसरे प्रसंग में याद करें तो ऐसा लगता है कि वर्तमान में गुत्थमगुत्था शक्तियों को जब अपनी ताकत कम लगती है तो वे अतीत के प्रेतों को अपनी मदद के लिये बुला लेते हैं। प्रगतिशील साहित्य के पक्ष में तर्क करते हुए केदार जी ने अज्ञेय के नेतृत्व में संचालित प्रयोगवादी आंदोलन पर सबसे ज्यादा खुलकर आक्रमण किया और उसके खतरे भी उठाए । कलावादी या उन्हीं के शब्दों में अहं के अंतर्गुहावासी खेमे से तो उन्हें क्या मान्यता मिलती, खुद प्रगतिशील आलोचना के भीतर आए भटकाव के नेताओं ने भी उन्हें दरकिनार ही किया। इसकी झलक मित्र सम्वाद के एक पत्र से मिलती है। चिठ्ठियों की इस शृंखला में आज इन्हीं दो साहित्यकारों का संवाद है जो इन्होंने चिट्ठी से सम्भव किया था।
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