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महाकवि भारवि विरचित किरातार्जुनीयम् का कथानक
भारवि ने किरात का कथानक महाभारत के वन पर्व से लिया है , परंतु कथा का विकास कवि ने अपनी प्रतिभा से किया है फलतः किरात की सुमधुर काव्यात्मकता महाभारत के केवल वर्णन प्राण कथानक में नहीं प्राप्त होती । पांडव अग्रज महाराजा युधिष्ठिर 12 वर्ष के अरण्यवास की बाजी लगाकर कौरवों से जुआ खेलते हैं और पराजय पाकर अपने अनुजों तथा प्रियतमा द्रोपदी के साथ द्वैतवन में रहने लगते हैं ।वन में उन्हें अपने शुभैषी महर्षि वेदव्यास के दर्शन होते हैं जिनसे भावी कौरव पांडव युद्ध की अवश्यमभाविता जानकर, साथ ही साथ आत्मोद्योग के लिए प्रेरणा भी पाकर धनुर्धर अर्जुन पाशुपत अस्त्र प्राप्त करने के लिए भगवान शंकर के प्रसाद नार्थ इंद्रकील पर्वत की यात्रा करते हैं ।अर्जुन की सच्ची लगन एवं कठोर तपस्या से पिनाकी प्रसन्न हो जाते हैं और किरात का वेश धारण करके एक वन शुकर के लिए अर्जुन से युद्ध छेड़ देते हैं भयंकर संग्राम होता है और अंततः पार्थ के प्रचण्ड पराक्रम से अभिभूत शंकर अपने सहज रूप में प्रकट हो जाते हैं अर्जुन को अमोघ पाशुपतास्त्र की प्राप्ति होती है यही किरातार्जुनीयम् का संक्षिप्त कथानक है
यदि सर्गानुसार व्याख्या की जाए तो इस महाकाव्य का स्वरूप होता है।
1 सर्ग - वनेचर द्वारा सुयोधन को राज्य व्यवस्था का युधिष्ठिर के प्रति ज्ञापन तथा द्रोपदी का अमर्ष
2 सर्ग - युद्ध के लिए भीमसेन का उत्साह ,कौरवों के प्रति क्रोध । युधिष्ठिर द्वारा क्रोध शमनोपाय तथा महर्षि व्यास का आगमन
3 सर्ग- पाशुपतास्त्र की प्राप्ति के लिए व्यास द्वारा अर्जुन को प्रेरणा । अर्जुन का इंद्रकील शिखर की ओर प्रस्थान।
4 सर्ग- शरद् वर्णन
5 सर्ग - हिमगिरी- वर्णन
6 से 11 सर्ग तक - युवती प्रस्थान स्नानक्रीडा, संध्या , सूर्यास्त गमन ,चंद्रोदय, सुराङ्गनाविहार एवं सुरसुंदरी संभोग आदि
12 से 18 सर्ग तक - शिववोपासना के लिए इंद्र द्वारा अर्जुन को उत्साह दान , अर्जुन की कठोर तपस्या , स्कंध सेना से युद्ध, शंकर से युद्ध तथा पाशुपतास्त्र की प्राप्ति ।
यही किरातार्जुनीयम् का संक्षिप्त सार है।