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Kya Hai Prem Aur Bhagwan Se Prem Kaise Karen || Dharmavandna | #premkyahai #geeta #bhagwanseprem
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नमस्कार
प्रेम में किसी प्रकार का लेन देन नहीं होता। जहां कहीं किसी बदले की आशा रहती है, वहां यथार्थ प्रेम नहीं हो सकता। वह तो एक प्रकार की दुकानदारी सी हो जाती है। यानी अगर मैं आपसे खुश हूँ तभी मैं आपसे प्रेम करुंगा
जब तक हमारे हृदय में इस प्रकार की थोड़ी सी भी भावना रहती है कि भगवान की आराधना के बदले हमें उनसे कुछ मिले, तब तक हमारे हृदय में यथार्थ प्रेम का संचार नहीं हो सकता। जो लोग किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए भगवान की पूजा करते हैं, उन्हें यदि वह चीज न मिले तो निश्चय ही वे उनकी पूजा करना छोड़ देंगे। बल्कि एक सच्चा भक्त भगवान से इसलिए प्रेम करता है क्योंकि वे प्रेमास्पद हैं। सच्चे भक्त के इस दैवीय प्रेम का और कोई हेतु और कारण नहीं रहता और न ही वह कुछ चाहता है।
उदाहरण के लिए समझिए एक बार एक राजा किसी वन में गया। वहां उसे एक साधु मिले। साधु से थोड़ी देर बातचीत करके राजा उनकी पवित्रता और ज्ञान पर बड़ा मुग्ध हो गया। राजा ने उनसे प्रार्थना की, महाराज!
यदि आप मुझसे कोई भेंट ग्रहण करने की कृपा करें तो मैं धन्य हो जाऊं। पर साधु ने इंकार कर दिया और कहा इस जंगल में मेरे लिए पर्याप्त फल हैं। पहाड़ों से निकले हुए शुद्ध पानी के झरने पीने को पर्याप्त जल दे देते हैं। वृक्षों की छालें मेरे शरीर को ढकने के लिए पर्याप्त हैं और पर्वतों की कंदरा सुंदर घर का काम देती हैं। मैं तुमसे अथवा अन्य किसी से भेट क्यों लूं? राजा ने कहा महाराजा केवल मुझे कृतार्थ करने के लिए कृपया कुछ अवश्य स्वीकार कर लीजिए और दया कर मेरे साथ चलकर मेरी राजधानी तथा महल को पवित्र कीजिए। विशेष आग्रह के बाद साधु ने अंत में राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली और उसके साथ उसके महल को गए। साधु की भेंट देने के पहले राजा नियमानुसार अपनी दैनिक प्रार्थना करने में लग गया। उसने भगवान से प्रार्थना की, हे भगवान! मुझे और अधिक संतान दो। मेरा धन और भी बढ़े। मेरा राज्य अधिकाधिक फैल जाए, मेरा शरीर स्वस्थ और निरोग हो जाए इत्यादि।
राजा अपनी प्रार्थना समाप्त कर भी नहीं पाया कि साधु उठ खड़े हुए और चुपके से कमरे के बाहर चल दिए। यह देखकर राजा बड़े असमंजस में पड़ गया और चिल्लाता हुआ साधु के पीछे भागा। महाराज। आप कहां जा रहे हैं? आपने तो मुझसे कोई भी भेंट ग्रहण नहीं की। यह सुनकर वे साधु पीछे घूमकर राजा से बोले अरे भिखारी, मैं भिखारियों से भिक्षा नहीं मांगता। तुम तो स्वयं एक भिखारी है। मुझे किस प्रकार भिक्षा दे सकते हो? मैं इतना मूर्ख नहीं कि तुम जैसे भिखारी से कुछ लूं। जाओ, भाग जाओ, मेरे पीछे मत आओ। इस कथा से भगवान के सच्चे प्रेमियों और साधारण भिखारियों में भेद बड़े सुंदर ढंग से प्रकट हुआ है।
भगवान आपसे यह नही कहता है कि मेरी इतनी पूजा करो तो करो तो ही मैं इतना फल दूंगा बल्कि भगवान तो अपने भक्तो से इतना प्रेम करते है कि बिना कुछ मानेंगे ही आपको फल दे देते हैं
प्रेम में कोई भय नहीं रहता। जो भयभीत होकर भगवान से प्रेम करते हैं, वह भगवान से प्रेम नहीं करते वे दण्ड के भय से ईश्वर की उपासना करते हैं। उनकी दृष्टि में ईश्वर एक महान पुरुष हैं, जिनके एक हाथ में दंड है और दूसरे में चाबुक। उन्हें इस बात का डर रहता है कि यदि वे उनकी आज्ञा का पालन नहीं करेंगे तो उन्हें कोड़े लगाए जाएंगे। पर दंड के भय से ईश्वर की पूजा करना सबसे निम्न कोटि की उपासना है। एक तो वह उपासना कहलाने योग्य है ही नहीं, जब तक हृदय में किसी प्रकार का भय है, तब तक प्रेम कैसे हो सकता है? प्रेम स्वभावतः सब प्रकार के भय पर विजय प्राप्त कर लेता है। उदाहरण के लिए यदि एक युवती सड़क पर जा रही हो और उस पर कुत्ता भौंक पड़े तो वह डरकर उससे दूर भाग जायेगी। परंतु मान लो दूसरे दिन वही स्त्री अपने बच्चे के साथ जा रही है और उसके बच्चे पर शेर झपट पड़ता है तो बताओ वह क्या करेगी? बच्चे की रक्षा के लिए वह स्वयं शेर के मुंह में चली जायेगी। सचमुच प्रेम समस्त भय पर विजय प्राप्त कर लेता है। जब तक तुममें थोड़ा सा भी भय है, तब तक तुम्हारे मानस सरोवर में प्रेम की तरंगे नहीं उठ सकती। प्रेम और भय दोनों एक साथ कभी नहीं रह सकते। जो भगवान से प्रेम करते हैं, उन्हें उनसे डरना नहीं चाहिए।
एक सच्चा प्रेम आपसे कभी कुछ नहीं माँगता है। सच्चा प्रेम समय के साथ कभी नहीं बदलता है। बल्कि वक्त के साथ और मजबूत होता जाता है।
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