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परा प्रकृति ही अपरा प्रकृति | पुरुष ही परमतत्व है |योगी बुद्धि प्रकाश

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Brahmavidya

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Күн бұрын

जय गुरुदेव
भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान-विज्ञान समझने के लिए अर्जुन को समझाया कि संपूर्ण प्राणियों की उत्पति भगवान की दो प्रकार से विभक्त प्रकृतियों द्वारा होती है। अपरा प्रकृति में आठ तत्व है- पंच महाभूत के अलावा मन, बुद्धि, एवं अहंकार परा प्रकृति ((शक्ति)) से अपरा प्रकृति के परिवर्तित विभिन्न रूप, देह आदि धारण किए जाते हैं। नवीनतम शब्दावली में परा प्रकृति को ‘ईश्वरीय तत्व’ ((गॉड पार्टिकल)) कह सकते हैं। परा प्रकृति ‘चेतन तत्व’ है जिससे समस्त जीवन व्यक्त होते हैं।
जीव अपरा प्रकृति को परा प्रकृति ((शक्ति, ईश्वर तत्व)) से धारण करते हैं। अपरा प्रकृति में पदार्थ स्थूल एवं सूक्ष्म यथा
मन, बुद्धि, अहंकार शामिल हैं। जीव ईश्वर का अंश है। ईश्वर परा-अपरा दोनों प्रकृतियों का योग है।
भगवान समझाते हैं - ‘ऐसा समझ कि संपूर्ण भूत दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं और भगवान ही संपूर्ण जगत की उत्पति तथा प्रलय का कारण है।’ इस गूढ़ तत्व को जानने-मानने वाला ही भगवान का भक्त है। उनके परायण होकर नित्य भज, योग सिद्ध करके, जीवन मुक्त हो सकता है।
अपरा प्रकृति बाहरी दुनिया है जिसे इंद्रियों (दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, गंध, स्वाद) द्वारा अनुभव किया जा सकता है। इसके विपरीत परा प्रकृति है , जो आंतरिक या आध्यात्मिक दुनिया है। यह नाम संस्कृत के अपरा से आया है , जिसका अर्थ है "निचला," और प्रकृति , जिसका अर्थ है "प्रकृति" या "स्रोत"। प्रकृति मौलिक पदार्थ या रचनात्मक ऊर्जा है। अपरा प्रकृति को मानव अस्तित्व की निचली प्रकृति माना जा सकता है।
परमहंस योगानंद के प्रत्यक्ष शिष्य स्वामी क्रियानंद ने अपरा प्रकृति को "ब्रह्मांडीय भ्रम" कहा है, जिसका अर्थ है कि यह योगी को चेतना की निचली अवस्था में खींचती है।
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