श्रीमद्भगवद्गीता=अध्याय 17=श्रद्धात्रय विभाग योग = Srimad Bhagavad Gita=Chapter 17

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Eternal Dharma-सनातन धर्म -हिन्दू संस्कृति

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8 ай бұрын

१७वें अध्याय
की संज्ञा श्रद्धात्रय विभाग योग है। इसका संबंध सत, रज और तम, इन तीन गुणों से ही है, अर्थात् जिसमें जिस गुण का प्रादुर्भाव होता है, उसकी श्रद्धा या जीवन की निष्ठा वैसी ही बन जाती है। यज्ञ, तप, दान, कर्म ये सब तीन प्रकार की श्रद्धा से संचालित होते हैं। यहाँ तक कि आहार भी तीन प्रकार का है। उनके भेद और लक्षण गीता ने यहाँ बताए हैं।
अध्याय सत्रह श्लोक १ से ५ तक
अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः৷৷1৷৷
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्र विधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त हुए देवताओं का पूजा करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है या राजसी की या तामसी?
श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु ৷৷ 2 ৷৷
भावार्थ : श्री भगवान्‌ बोले- मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा सात्त्विकी, राजसी तथा तामसी- ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है। उनको तुम मुझसे जानो -
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ৷৷ 3 ৷৷
भावार्थ : हे भारत! सभी वक्तियों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। वह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला होता है, वह स्वयं वैसा ही है ।
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः ৷৷ 4 ৷৷
भावार्थ : सात्त्विक व्यक्ति देवों को पूजते हैं, राजस व्यक्ति यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत तथा भूतगणों को पूजते हैं।
Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहङ्‍कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः॥ 5॥
भावार्थ : जो व्यक्ति शास्त्र विधि से रहित केवल मन से घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं ।
अध्याय सत्रह श्लोक ६ से १० तक
कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्‌यासुरनिश्चयान्‌॥ 6 ॥
भावार्थ : जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी क्षीण करने वाले हैं (शास्त्र से विरुद्ध उपवासादि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान्‌ के अंशस्वरूप जीवात्मा को कष्ट देना, भूत समुदाय को और अन्तर्यामी परमात्मा को ''क्षीण करना'' है।), उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव वाला जानो
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु ॥ 7॥
भावार्थ : भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं। उनके इस पृथक्‌-पृथक्‌ भेदों को तुम मुझसे जान।।

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श्रीमद्भगवद्गीता= अध्याय नव = राजगुह्ययोग = Shrimad bhagvad gita = Chapter nine = Rajguhyayoga
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