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🌹ॐ श्रीपरमात्मने नमः 🌹
अथ सप्तमोऽध्यायः
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥19॥
बहूनाम्=बहुत, जन्मनाम्= जन्मों के,अन्ते=अंतिम जन्म में, ज्ञानवान्=तत्त्वज्ञान को प्राप्त पुरुष,माम्=मुझको, प्रपद्यते= शरण होता है, वासुदेवः= परमात्मा ही हैं, सर्वम्=सब कुछ, इति=इस प्रकार, सः= वह, महात्मा=महात्मा,सुदुर्लभः =अत्यंत दुर्लभ है।
भावार्थ- बहुत जन्मों के अंतिम जन्म में तत्त्वज्ञान को प्राप्त पुरुष सब कुछ परमात्मा ही है- इस प्रकार मुझको शरण होता है,वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।
व्याख्या--
"बहूनां जन्मनामन्ते"
भगवान् कहते हैं कि अर्जुन! यह दो-चार दिन की साधना नहीं है,अनेक जन्मों की यात्रा है। कितने जन्म उसके चले गए।एक-एक जन्म में वह पुण्यों की संपत्ति बढ़ता गया। हर जन्म में यह ज्ञानी भक्त स्वयं को अधिकाधिक परिष्कृत करता जाता है और अंत में... भगवान कहते हैं-
"ज्ञानवान्मां प्रपद्यते"-
वह ज्ञानी भक्त मेरी शरण हो जाता है। कितने ही जन्म कर्मकांड,उपासना इत्यादि में, चित्त को शुद्ध करने में निकल जाते हैं। सद्गुरु की प्राप्ति होकर वह ज्ञानवान् बनता है। इसके बाद उसके अंतरंग में सही-सही शरणागति का उदय होता है।
हम तो साष्टांग करके ही अपने आप को शरणागत मान लेते हैं- यह तो शरणागति का प्रारंभ है।
शरणागति केवल देह की क्रिया नहीं।देह के स्तर पर शरणागति है,मन के स्तर पर, बुद्धि के स्तर पर, अहम् के स्तर पर शरणागति है। जब उसकी शरणागति पूर्ण हो जाती है तब उसे क्या प्रतीत होता है?
भगवान् वर्णन करते हैं,अर्जुन!
"वासुदेवः सर्वमिति"-
उस भक्त की यह पक्की धरणा हो जाती है कि जो कुछ भी जगत् में दिख रहा है,कर्मेन्द्रियों से जो कुछ कर रहे हैं,इंद्रियों से जो कुछ अनुभव हो रहा है, सुख-दुःख,भय विस्मय इत्यादि चाहे भावना हो, चाहे क्रिया हो, चाहे दिखने वाली वस्तु हो,चाहे प्राणी जगत् हो,सजीव हो,चाहे निर्जीव हो - सब कुछ जो भी है 'वासुदेव' है क्योंकि संसार की रचना करने के समय भगवान् के पास स्वयं के सिवाय कोई सामग्री नहीं थी। वह तो स्वयं संसार के रूप में प्रकट हुए हैं। सिद्धांत है कि जो चीज आदि में और अंत में होती है, वही बीच में (मध्य में) भी होती है। सोने के गहने आदि में सोना थे और अंत में भी सोना रहेंगे। तत्त्वज्ञान होने के बाद यह समझ में आ जाता है कि यह सब कुछ भगवत् स्वरूप ही है।
शरणागति की पूर्णता परमात्मा के साथ एकरूपता है,यह ध्यान रखना चाहिए।
"स महात्मा सुदुर्लभः"-
ऐसे भक्त को भगवान् ने 'महात्मा' कहा है "जिसकी आत्मा महान् होती है" और 'सुदुर्लभः' कहा-'अत्यंत दुर्लभ'। भगवान् कहते हैं कि ऐसे महात्मा ज्ञानी भक्त अत्यंत दुर्लभ हैं जो भगवान को अत्यंत अपने लगते हैं,प्रिय लगते हैं। ऐसा ज्ञानी भक्त बड़ी मुश्किल से युगों में देखने को मिलता है। एकाध कोई बिरला ही होता है-
मीराबाई,नरसी मेहता,चैतन्य महाप्रभु,ज्ञानेश्वर महाराज, तुकाराम महाराज......
विशेष-
इस श्लोक में चार बातें विचारणीय बतलाई हैं-
1.मानव जीवन को सार्थक बनाना है।
2.भगवत् शरणागति को स्वीकार करना है।
3.सर्वत्र सबमें परमात्मा का दर्शन करना है।
4.महात्मा बनकर जीना है। मानव जीवन अंतिम जन्म है यदि इसे सफल नहीं बनाया तो पुनः आवागमन के चक्र में जाना पड़ेगा। कम से कम इतना तो कर ही लिया जाए कि अगला जन्म फिर मनुष्य का ही मिले और साधन का क्रम आगे बढ़ सके।
हमारा यह जन्म इसका आरंभ बिंदु है और "वासुदेवः सर्वमिति", "सर्वम् खल्विदं ब्रह्म" की अनुभूति यह इसकी चरम परिणति है। जिसका अतीव सुंदर road map एक पंक्ति में भगवान् ने बतला दिया।
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