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🌹ॐ श्रीपरमात्मने नमः 🌹
अथ सप्तमोऽध्यायः
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया॥20॥
कामैः=भोगों की कामनाओं से, तैः तैः=उन-उन, हृतज्ञानाः= जिनका ज्ञान हरा गया है, प्रपद्यन्ते=शरण हो जाते हैं, अन्यदेवताः=अन्य देवताओं के, तम् तम्=उस-उस, नियमम्= नियमों को,आस्थाय=धारण करके, प्रकृत्या=स्वभाव से, नियताः=नियन्त्रित होकर, स्वया=अपने।
भावार्थ- उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा गया है, ऐसे मनुष्य अपने स्वभाव से नियंत्रित होकर उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं के शरण हो जाते हैं।
व्याख्या--
जो भगवान् के महत्व को समझ कर उनकी शरण होते हैं, ऐसे भक्तों का वर्णन 16 से 19 वें श्लोक तक करने के बाद अब भगवान् आगे के तीन श्लोकों में देवताओं के शरण होने वाले मनुष्यों का वर्णन करते हैं-
"कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः"-
कामनाओं के कारण उनके ज्ञान का हरण हो गया,ज्ञान खींच लिया गया। इन सब लोगों के मन में इतनी सारी कामनाएँ हैं,लंबी-लंबी सूचियाँ हैं। ये लोग खींच लिए जाते हैं।
किसके द्वारा?
कामनाओं के द्वारा।
सारा जीवन इसी में चला जाता है और परिणाम यह होता है कि परमात्म दिशा का जो ज्ञान है वहाँ पर मन ही नहीं लग सकता। हर एक की दौड़ कामना की तरफ है, दिशा है कामना की पूर्ति करना।
इन कामनाओं के द्वारा मनुष्य इतना क्यों खींचा जाता है?
भगवान् कहते हैं-
"प्रकृत्या नियताः स्वया"-
प्रकृति का अर्थ है "स्वभाव" और स्वभाव क्या है?
हमारे द्वारा किए गए पुण्य- पाप कर्म जो भी होंगे,वे इकट्ठे होते-होते हमारे भीतर अपने आप उस प्रकार की भावनाएँ निर्माण करते हैं। भगवान् कहते हैं कि यह अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार बने हुए स्वभाव का परिणाम है कि हमारे मन में उसी-उसी प्रकार की कामनाएँ खड़ी होती हैं। हमारे पूर्वकर्म हमारा 'स्वभाव' बन जाते हैं। हमारा स्वभाव ही हमारे गुणों निर्माण करता है और उसके कारण कामना निर्माण होती है।
"प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः"-
भगवान् कहते हैं,अर्जुन! फिर वे लोग मेरे पास नहीं आते। अलग-अलग देवताओं के स्थान को ढूॅंढते हैं। कहाँ जाकर इच्छा जल्दी पूरी होगी,यह देखते हैं। और इसके लिए
"तं तं नियममास्थाय"-
जब भिन्न-भिन्न देवताओं की आराधना करनी होती है,तब उन-उन देवताओं के नियमों का भी पालन करना पड़ता है। यज्ञ,जप,दान आदि सबके अलग-अलग नियम होते हैं।उन नियमों का पालन करते हैं।
विशेष-
हम अभी संसार में हैं,अनेक कामनाओं से ग्रस्त हैं,अनेक बंधन हैं- ऐसी स्थिति में हमें उस-उस कामना को पूरा करने के लिए देवताओं की आराधना करने की इच्छा हो जाए तो भगवान् इसके विरोधक नहीं हैं लेकिन धीरे-धीरे इस सकामता को कम करते हुए, अपने साधन को भी जाॅंचते रहना चाहिए। पूर्वजन्म के कर्मों द्वारा निर्मित स्वभाव के कारण अनेक कामनाएँ बार-बार मन में उदित होती हैं। उन कामनाओं के कारण मन ज्ञान में टिकता नहीं है। मन पुनः पुनः इन कामनाओं के द्वारा नीचे की ओर खींचा जाता है। ये कामनाएँ मन को ऊर्ध्वगामी होने नहीं देती।
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