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🌹ॐ श्रीपरमात्मने नमः 🌹
अथ सप्तमोऽध्यायः
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥7॥
मत्तः=मुझसे,परतरम्=परम (कारण), न=नहीं,अन्यत्=भिन्न दूसरा कोई, किञ्चित्=जरा सा भी,अस्ति=है, धनञ्जय=हे धनञ्जय! मयि=मुझमें,सर्वम्= सम्पूर्ण जगत्, इदम्=यह,प्रोतम् =गुॅंथा हुआ है, सूत्रे=सूत्र में, मणिगणा=मणियों के,इव= सदृश।
भावार्थ- हे धनञ्जय! मुझे भिन्न दूसरा कोई जरा सा भी परम कारण नहीं है,यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में मणियों के सदृश मुझ में गुॅंथा हुआ है।
व्याख्या--
"मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय"-
भगवान् परम तत्त्व के रूप में अर्जुन को अपनी पहचान दिखाते हुए कहते हैं कि मेरे सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं है,मेरे से ऊपर कुछ भी नहीं है। मैं ही इस संसार का महाकारण हूंँ। 'परतरम्' कहकर सबका मूल कारण बताया गया है,मूल कारण के आगे कोई कारण नहीं है।
बहुत सुंदर उपमा देकर प्रभु इस बात को स्पष्ट करते हैं-
"मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव"-
यह सारा संसार सूत में सूत की ही मणियों की तरह मेरे में पिरोया हुआ है अर्थात् मैं ही सारे संसार में व्याप्त हूँ। जिस प्रकार सूत से बनी मणियों मेंऔर सूत में सूत के सिवाय अन्य कुछ नहीं है,उसी प्रकार संसार में मेरे सिवाय अन्य कोई तत्त्व नहीं है। हर एक मणि का अस्तित्व अलग-अलग है लेकिन जब वह सूत में पिरो दिया जाता है तब वह धागा उन सबको बाॅंध लेता है। उनके भीतर जाने वाला धागा एक ही है। भगवान् कहते हैं कि यह भीतर का धागा मैं हूंँ। यह संपूर्ण सृष्टि मुझ में गुॅंथी हुई है।
यह सब मुझ में ही पिरोया गया है,यह सब मेरे कारण धारण होता है, इन सब के अंतस्थ में मैं विराजमान हूंँ।
विशेष-
सूत्र- व्यापक है, परा प्रकृति है। मणि- व्याप्य है, अपरा प्रकृति है।
भगवान् कहते हैं कि परा हो या अपरा इन सब का जन्मस्थान में ही हूंँ। दोनों में मैं ही परिपूर्ण हूंँ, व्याप्त हूंँ।
जब साधक संसार को संसार बुद्धि से देखता है तब उसको संसार में परिपूर्ण रूप से व्याप्त परमात्मा नहीं दिखते परंतु जब परमात्मतत्त्व का वास्तविक बोध हो जाता है, तब व्यापक व्यापक भाव मिटकर एक परमात्मतत्त्व ही दिखता है।इस तत्त्व को बताने के लिए ही भगवान ने यहाँ कारण रूप से अपनी व्यापकता का वर्णन किया है।
इस श्लोक में आए 'मत्तः' पद से प्रारम्भ करके 12 वें श्लोक के 'मत्त एव' पद तक भगवान ने यही बात बतलाई है कि मेरे सिवाय कुछ भी नहीं है।
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