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भगवद्गीता भी आत्म-समर्पण की दशा का वर्णन करती है। यह कोई सरलता से प्राप्य साधारण वस्तु नहीं है। यह सभी इन्द्रियों एवं प्रवृत्तियों के पूर्ण निषेध के पश्चात् आरम्भ होती है जिसके लिए हम भक्ति के प्रारम्भिक नियमों द्वारा आगे बढ़ते हैं। हम अपने गुरु को एक अलौकिक पुरुष मानकर उसके प्रति समर्पण करते हैं।
- Babi ji Maharaj