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उत्तराखंड में बस सेवाएँ भले ही आज दम तोड़ने लगी हों, लेकिन किसी दौर में ये पहाड़ी समाज की धमनियों में अनिवार्य जरूरत की तरह थी. न केवल समाज, बल्कि सांस्कृतिक विरासत के विस्तार और आंदोलनों को मज़बूती देने में भी इन्हीं बसों ने उल्लेखनीय योगदान दिया है. तभी तो इन बसों पर तमाम उपमाओं से सुसज्जित दर्जनों लोकगीत बने हैं और कविताएँ रची गई हैं. लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी का वो चर्चित गीत ‘चली भै मोटर चली, सरा रारा प्वां प्वां’ भला कौन भूल पाया होगा. इस एक ही गीत में नेगी जी ने बस के भीतर पूरे उत्तराखंड के समाज को समायोजित कर लिया था.
आज हम आपको इन्हीं ऐतिहासिक बस सेवाओं की एक इतिहास यात्रा पर ले चलेंगे. ये बस सेवाएँ कैसे शुरू हुई और कैसे इसने पूरी आधी सदी तक पहाड़ों में एक गांव से दूसरे गांव के दुख-सुख साझा किए. कभी सीमा पर तैनात बेटे की चिट्ठी को उसकी मां तक पहुंचाकर मुरझाए हुए चेहरे पर ख़ुशियाँ बिखेरी, तो कभी मनी ऑर्डर पहुँचाकर वो बूढ़े बाप की लाठी बन गई. एक ऐसी बस सेवा, जिसने उत्तराखंड आंदोलन की गति बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. बग़ावती सुर अपनाते हुए सबसे पहले इन्हीं बसों पर ‘उत्तराखंड सरकार’ लिख कर पृथक राज्य आंदोलन का बिगुल फूंक दिया गया था.
देखिए उत्तराखंड की लाइफ लाइन जीएमओयू (GMOU), टीजीएमओ (TGMO) और केएमयू (KMOU) के इतिहास की कहानी...
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