श्रीमद्भगवद्गीता=अध्याय 16=देवासुर संपदा विभाग योग=Srimad Bhagavad Gita=Chapter 16

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Eternal Dharma-सनातन धर्म -हिन्दू संस्कृति

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9 ай бұрын

Srimad Bhagavad Gita=Chapter 16=Devasur Sampada Vibhag Yoga
१६वें अध्याय
में देवासुर संपत्ति का विभाग बताया गया है। आरंभ से ही ऋग्देव में सृष्टि की कल्पना दैवी और आसुरी शक्तियों के रूप में की गई है। यह सृष्टि के द्विविरुद्ध रूप की कल्पना है, एक अच्छा और दूसरा बुरा। एक प्रकाश में, दूसरा अंधकार में। एक अमृत, दूसरा मर्त्य। एक सत्य, दूसरा अनृत।
अध्याय 16 का श्लोक 1
अभयम्, सत्त्वसंशुद्धिः, ज्ञानयोगव्यवस्थितिः,
दानम्, दमः, च, यज्ञः, च, स्वाध्यायः, तपः, आर्जवम्।।1।।
अनुवाद: (अभयम्) निर्भय (सत्वसंशुद्धि) अन्तःकरणकी पूर्ण निर्मलता (ज्ञानयोगव्यवस्थितिः) ज्ञानी (च) और (दानम्) दान (दमः) संयम (यज्ञः) यज्ञ करनेसे (स्वाध्यायः) धार्मिक शास्त्रों पठन पाठन (तपः) भक्ति मार्ग में कष्ट सहना रूपी तप (च) और (आर्जवम्) आधीनता। (1)
हिन्दी: निर्भय अन्तःकरणकी पूर्ण निर्मलता ज्ञानी और दान संयम यज्ञ करनेसे धार्मिक शास्त्रों पठन पाठन भक्ति मार्ग में कष्ट सहना रूपी तप और आधीनता।
अध्याय 16 का श्लोक 2
अहिंसा, सत्यम्, अक्रोधः, त्यागः, शान्तिः, अपैशुनम्,
दया, भूतेषु, अलोलुप्त्वम्, मार्दवम्, ह्री, अचापलम्।।2।।
अनुवाद: (अहिंसा) मन, वाणी और शरीरसे किसी प्रकार भी किसीको कष्ट न देना (सत्यम्) सत्यवादी (अक्रोधः) अपना अपकार करनेवालेपर भी क्रोधका न होना (त्यागः) परमात्मा के लिए सिर भी सौंप दे (शान्तिः) अन्तःकरणकी उपरति अर्थात् चितकी चंचलताका अभाव (अपैशुनम्) निन्दादि न करना (भूतेषु) प्राणियोंमें (दया) दया (अलोलुप्त्वम्) निर्विकार (मार्दवम्) कोमलता (ह्री) बुरे कर्मों में लज्जा (अचापलम्) चापलूसी रहित। (2)
हिन्दी: मन, वाणी और शरीरसे किसी प्रकार भी किसीको कष्ट न देना सत्यवादी अपना अपकार करनेवालेपर भी क्रोधका न होना परमात्मा के लिए सिर भी सौंप दे अन्तःकरणकी उपरति अर्थात् चितकी चंचलताका अभाव निन्दादि न करना प्राणियोंमें दया निर्विकार कोमलता बुरे कर्मों में लज्जा चापलूसी रहित।
अध्याय 16 का श्लोक 3
तेजः, क्षमा, धृतिः, शौचम्, अद्रोहः, नातिमानिता,
भवन्ति, सम्पदम्, दैवीम्, अभिजातस्य, भारत।।3।।
अनुवाद: (तेजः) तेज (क्षमा) क्षमा (धृतिः) धैर्य (शौचम्) शुद्धि (अद्रोहः) निर्वैरी और (नातिमानिता) अपनेआप को नहीं पूजवावै (भारत) हे अर्जुन! (दैवीम्,सम्पदम्) भक्ति भावको (अभिजातस्य) लेकर उत्पन्न हुए पुरुषके लक्षण (भवन्ति) होते हैं। (3)
हिन्दी: तेज क्षमा धैर्य शुद्धि निर्वैरी और अपनेआप को नहीं पूजवावै हे अर्जुन! भक्ति भावको लेकर उत्पन्न हुए पुरुषके लक्षण होते हैं।
विशेष:- श्लोक 4 से 20 तक उन व्यक्तियों के लक्षणों का वर्णन है जो पहले कभी मानव शरीर में थे तब भी शास्त्र विधि अनुसार साधना नहीं की। फिर अन्य योनियों व नरक आदि में तथा क्षणिक सुख स्वर्ग आदि का भोग कर फिर मानव शरीर में आते हैं तो भी स्वभाववश वैसी ही साधना व विकारों में आरुढ़ रहते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 4
दम्भः, दर्पः, अभिमानः, च, क्रोधः, पारुष्यम्, एव, च,
अज्ञानम्, च, अभिजातस्य, पार्थ, सम्पदम्, आसुरीम्,।।4।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (दम्भः) पााखण्ड (दर्पः) घमण्ड (च) और (अभिमानः) अभिमान (च) तथा (क्रोधः) क्रोध (पारुष्यम्) कठोरता (च) और (अज्ञानम्) अज्ञान (एव) वास्तव में ये सब (आसुरीम्) राक्षसी (सम्पदम्) सम्पदाके (अभिजातस्य) सहित उत्पन्न हुए पुरुषके लक्षण हैं। (4)
हिन्दी: हे पार्थ! पााखण्ड घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध कठोरता और अज्ञान वास्तव में ये सब राक्षसी सम्पदाके सहित उत्पन्न हुए पुरुषके लक्षण हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 5
दैवी, सम्पत्, विमोक्षाय, निबन्धाय, आसुरी, मता,
मा, शुचः, सम्पदम्, दैवीम्, अभिजातः, असि, पाण्डव।।5।।
अनुवाद: (दैवी,सम्पत्) संत लक्षण (विमोक्षाय) मुक्ति के लिये और (आसुरी) आसुरी सम्पदा (निबन्धाय) बाँधनेके लिये (मता) मानी गयी है। इसलिये (पाण्डव) हे अर्जुन! तू (मा, शुचः) शोक मत कर क्योंकि तू (दैवीम्, सम्पदम्) भक्तिभावको (अभिजातः) लेकर उत्पन्न हुआ (असि) है। (5)
हिन्दी: संत लक्षण मुक्ति के लिये और आसुरी सम्पदा बाँधनेके लिये मानी गयी है। इसलिये हे अर्जुन! तू शोक मत कर क्योंकि तू भक्तिभावको लेकर उत्पन्न हुआ है।
अध्याय 16 का श्लोक 6
द्वौ, भूतसर्गौ, लोके, अस्मिन्, दैवः, आसुरः, एव, च,
दैवः, विस्तरशः, प्रोक्तः, आसुरम्, पार्थ, मे, श्रृणु।।6।।
अनुवाद: (पार्थ) हे अर्जुन! (अस्मिन्) इस (लोके) लोकमें (भूतसर्गौ) प्राणियोंकी सृष्टि (द्वौ एव) दो ही प्रकारकी है एक तो (दैवः) संत-स्वभाव वाला (च) और दूसरा (आसुरः) राक्षसी-स्वभाव वाला उनमेंसे (दैवः) संत स्वभाव वालों का (विस्तरशः) विस्तारपूर्वक (प्रोक्तः) विवरण पहले कहा गया अब तू (आसुरम्) राक्षसी-स्वभाव वाले (मे) मुझसे (श्रृणु) सुन। (6)
हिन्दी: हे अर्जुन! इस लोकमें प्राणियोंकी सृष्टि दो ही प्रकारकी है एक तो संत-स्वभाव वाला और दूसरा राक्षसी-स्वभाव वाला उनमेंसे संत स्वभाव वालों का विस्तारपूर्वक विवरण पहले कहा गया अब तू राक्षसी-स्वभाव वाले मुझसे सुन।
अध्याय 16 का श्लोक 7
प्रवृत्तिम्, च, निवृत्तिम्, च, जनाः, न, विदुः, आसुराः,
न, शौचम्, न, अपि, च, आचारः, न, सत्यम्, तेषु, विद्यते।।7।।
अनुवाद: (आसुराः) आसुर-स्वभाववाले (जनाः) मनुष्य अर्थात् चाहे वे संत कहलाते हैं, चाहे उनके शिष्य या स्वयं शास्त्र विधि रहित साधना करने वाले व्यक्ति (प्रवृत्तिम्) प्रवृति (च) और (निवृत्तिम्) निवृति इन दोनांेको (च) भी (न) नहीं (विदुः) जानते इसलिये (तेषु) उनमें (न) न तो (शौचम्) अंतर भीतरकी शुद्धि है (न) न (आचारः) श्रेष्ठ आचरण है (च) और (सत्यम्) सच्चाई (अपि) भी (न) नहीं (विद्यते) जानी जाती है। (7)
हिन्दी: आसुर-स्वभाववाले मनुष्य अर्थात् चाहे वे संत कहलाते हैं, चाहे उनके शिष्य या स्वयं शास्त्र विधि रहित साधना करने वाले व्यक्ति प्रवृति और निवृति इन दोनांेको भी नहीं जानते इसलिये उनमें न तो अंतर भीतरकी शुद्धि है न श्रेष्ठ आचरण है और सच्चाई भी नहीं जानी जाती है।

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