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🌹ॐ श्रीपरमात्मने नमः 🌹
अथ सप्तमोऽध्यायः
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः॥3॥
मनुष्याणाम्=मनुष्यों में,सहस्रेषु =कई हजारों में,कश्चित्=कोई एक,यतति=यत्न करता है, सिद्धये=सिद्धि,आत्मकल्याण के लिए, यतताम्=यत्न करने वालों में,अपि=भी,सिद्धानाम्= योगियों में,कश्चित्=कोई एक, माम्=मुझे,वेत्ति=जानता है, तत्त्वतः= यथार्थ रूप से।
भावार्थ- कई हजारों मनुष्यों में कोई एक सिद्धि अर्थात् आत्मकल्याण के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको यथार्थ रूप से तत्त्व से जानता है।
व्याख्या--
"मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये"-
भगवान् कहते हैं कि कई हजारों मनुष्यों में से कोई इक्का-दुक्का ही परमसिद्धि, परमात्म प्राप्ति,मोक्ष के लिए प्रयत्न करता है अर्थात् जिससे बढ़कर कोई लाभ नहीं, जिसमें दुःख का लेश भी नहीं और आनंद की किंचित् मात्र भी कमी नहीं; ऐसे स्वतः सिद्ध नित्यतत्त्व की प्राप्ति के लिए, आत्मकल्याण के लिए तत्परता से,दृढ़ता से साधन करने वाले लोग बहुत कम हैं।
"यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः"-
भगवान् कहते हैं कि जो प्रयत्नशील होते हैं उनमें भी कोई- कोई एक आध ही होगा जो मुझे तत्त्व से जान पाता है। भगवान् को जानना एक बात है और तत्त्वतः जानना दूसरी बात है। तत्त्वतः जानते ही हमारा उसके साथ संबंध क्या है;यह बात ध्यान में आती है।
भगवती मीराबाई ने यह नहीं कहा कि गिरिधर गोपाल मेरे हैं; वे तो कहती है कि "मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा न कोई" दूसरा कोई है ही नहीं- इस प्रकार का पूर्ण भाव, यह तत्त्व को जानने से ही होगा।
विशेष-
प्रभु को तत्त्वतः जानना, निःसंशय जानना और समग्रता से जानना- यह सारा इस अध्याय का विषय है।
सारे मनुष्य मोक्ष की ओर नहीं दौड़ते,संसार की ओर दौड़ते हैं, तत्काल सुख देने वाले साधनों में ही लगते हैं, सांसारिक भोगों में ही लगे रहते हैं।
भगवान् कहते हैं कि परमात्म तत्त्व की प्राप्ति होना कठिन नहीं है,उत्कट अभिलाषा का होना कठिन है।
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