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जलते हुए जनतंत्र के साथ आम आदमी की विवशता और उच्च मध्यवर्गों के आपराधिक चरित्रों को तभी पहचान लेने वाले धूमिल का जन्म नौ नवंबर, 1936 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के खेवली गांव में माता रसवंती देवी के गर्भ से हुआ था।
13 साल के होते-होते उनकी शादी कर दी गई और अपनी जिम्मेदारियां निभाने के लिए उन्हें एक लकड़ी व्यापारी के यहां नौकरी शुरू करनी पड़ी।बाद में उन्होंने एक औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र से बिजली संबंधी कामों का डिप्लोमा किया और उसी में अनुदेशक नियुक्त हो गये।
नौकरी मिली तो उसके चक्कर में उन्हें सीतापुर, बलिया और सहारनपुर आदि की हिजरत भी करनी पड़ी, लेकिन उनका मन बनारस में रमता था या फिर खेवली में, जिससे अपना जुड़ाव उन्होंने खत्म नहीं होने दिया था।
उनका रहन-सहन इतना साधारण था कि ब्रेन ट्यूमर के शिकार होकर 10 फरवरी, 1975 को वे अचानक मौत से हारे तो उनके परिजनों तक ने रेडियो पर उनके निधन की खबर सुनने के बाद ही जाना कि वे कितने बड़े कवि थे।
बनारस के मणिकर्णिका घाट पर उनकी अंत्येष्टि के समय सिर्फ कुंवरनारायण और श्रीलाल शुक्ल पहुंचे थे। अपने आत्मकथ्यों में वे अपनी जिस मृत्यु को अनिश्चित लेकिन दिन में सैकड़ों बार संभव बताते थे, वह उस दिन आयी ही कुछ ऐसे दबे पांव थी!
धूमिल के जीवित रहते 1972 में उनका सिर्फ एक कविता संग्रह प्रकाशित हो पाया था- संसद से सड़क तक. ‘कल सुनना मुझे’ उनके निधन के कई बरस बाद छपा और उस पर 1979 का प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार उन्हें मरणोपरांत दिया गया। बाद में उनके बेटे रत्नशंकर की कोशिशों से उनका एक और संग्रह छपा- 'सुदामा पांडे का प्रजातंत्र'
आलोचक प्रियदर्शन ठीक ही कहते हैं कि मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय के बाद धूमिल हमारे जटिल समय के ताले खोलनेे वाली तीसरी बड़ी आवाज हैं। जो बम मुक्तिबोध के भीतर कहीं दबा पड़ा है और रघुवीर सहाय के यहां टिकटिक करता नजर आता है, धूमिल की कविता तक आते-आते जैसे फट पड़ता है। कुछ इस तरह कि उसकी किरचें हमारी आत्माओं तक पर पड़ती हैं।
आज हम आपको जो चिट्ठी सुना रहें हैं वह इसी कवि की है जो इन्होंने अशोक वाजपेजी जी को लेखक शिविर में न आ सकने के क्षोभ व्यक्त करते हुए लिखा था, इस चिट्ठी में कवि की आत्मा का स्वर है।
अब यह आपके हवाले 😊💐
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