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उनको मोक्ष नहीं मिलता जिनका | 6 महीने मे ही मुक्त हो जाता है| योगी बुद्धि प्रकाश |

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Brahmavidya

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जय गुरुदेव
बौद्ध धर्म की दो प्रधान शाखाएँ हैं-हीनयान (या उत्त- रीय) और महायान (या दक्षिणी)। इनमें से हीनयान शाखा के सब ग्रंथ पाली भाषा में हैं और बौद्ध धर्म के मूल रूप का प्रतिपादन करते हैं। महायान शाखा कुछ पीछे की है और उसके सब ग्रंथ सस्कृत में लिखे गए हैं। महायान शाखा में ही अनेक आचार्यों द्वारा बौद्ध सिद्धांतों का निरूपण गूढ़ तर्कप्रणाली द्वारा दार्शनिक दृष्टि से हुआ है। प्राचीन काल में वैदिक आचार्यों का जिन बौद्ध आचार्यों से शास्त्रार्थ होता था वे प्रायः महायान शाखा के थे। अतः निर्वाण शब्द से क्या अभिप्राय है इसका निर्णय उन्हीं के वचनों द्वारा हो सकता है। बोधिसत्व नागार्जुन ने माध्यमिक सूत्र में लिखा है कि 'भवसंतति का उच्छेद ही निर्वाण है', अर्थात् अपने संस्कारों द्वारा हम बार बार जन्म के बंधन में पड़ते हैं इससे उनके उच्छेद द्वारा भवबंधन का नाश हो सकता है। रत्नकूटसूत्र में बुद्ध का यह वचन हैः राग, द्वेष और मोह के क्षय से निर्वाण होता है। बज्रच्छेदिका में बुद्ध ने कहा है कि निर्वाण अनुपधि है, उसमें कोई संस्कार नहीं रह जाता। माध्यमिक सूत्रकार चंद्रकीर्ति ने निर्वाण के संबंध में कहा है कि सर्वप्रपंचनिवर्तक शून्यता को ही निर्वाण कहते हैं। यह शून्यता या निर्वाण क्या है ! न इसे भाव कह सकते हैं, न अभाव। क्योंकि भाव और अभाव दोनों के ज्ञान के क्षप का ही नाम तो निर्वाण है, जो अस्ति और नास्ति दोनों भावों के परे और अनिर्वचनीय है।
माधवाचार्य ने भी अपने सर्वदर्शनसंग्रह में शून्यता का यही अभिप्राय बतलाया है-'अस्ति, नास्ति, उभय और अनुभय इस चतुष्कोटि से विनिमुँक्ति ही शून्यत्व है'। माध्यमिक सूत्र में नागार्जुन ने कहा है कि अस्तित्व (है) और नास्तित्व (नहिं है) का अनुभव अल्पबुद्धि ही करते हैं। बुद्धिमान लोग इन दोनों का अपशमरूप कल्याण प्राप्त करते हैं। उपयुक्त वाक्यों से स्पष्ट है कि निर्वाण शब्द जिस शून्यता का बोधक है उससे चित्त का ग्राह्यग्राहकसंबंध ही नहीं है। मै भी मिथ्या, संसार भी मिथ्या। एक बात ध्यान देने की है कि बौद्ध दार्शनिक जीव या आत्मा की भी प्रकृत सत्ता नहीं मानते। वे एक महाशून्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते। बुद्ध ने निर्वाण को मन की उस परम शांति के रूप में वर्णित किया जो तृष्णा, क्रोध और दूसरी विषादकारी मन:स्थितियों (क्लेश) से परे है। ऐसा प्राणी जिसने जीवन में शांति को पा लिया है, जिसके मन में सभी के लिए दया हो और जिसने सभी इच्छाओं और बंधनों का त्याग कर दिया हो. यह शांति तभी प्राप्त होती है जब सभी वर्तमान इच्छाओं के कारण समाप्त हो जाएं और भविष्य में पैदा हो सकने वाली इच्छाओं का जड़ से नाश हो जाए. निर्वाण में तृष्णा और द्वेष के कारण जड़ से समाप्त हो जाते हैं, जिससे मनुष्य सभी प्रकार के कष्टों (पाली-दु:ख) या संसार में पुनर्जन्म के चक्र से छूट जाता है।
पाली के सिद्धांतों में निर्वाण के दूसरे दृष्टिकोण भी हैं; एक के अनुसार ये उसी तरह है जैसे किसी भी तथ्य में रिक्तताको ढूंढना. साथ ही इसे चेतना की संपूर्ण पुनर्व्यवस्था और चेतन की परतें खोलने की तरह भी दिखाया जाता है।[2] विद्वान हरबर्ट गींतर का कहना है कि निर्वाण से "आदर्श व्यक्तित्व, सच्चा इंसान" वास्तविकता बन जाता है।[3]
धम्मपद में बुद्ध कहते हैं कि निर्वाण ही "परम आनंद" है। यह आनंद चिरस्थाई और सर्वोपरि होती है जो ज्ञानोदय या बोधि से प्राप्त होने वाली शांति का एक अभिन्न अंग है। यह आनंद नश्वर वस्तुओं की खुशी से एकदम अलग होती है। निर्वाण से जुड़ा हुआ ज्ञान बोधि शब्द के माध्यम से व्यक्त होता है।
बुद्ध निर्वाण की व्याख्या को "सहज" (असंखता) मन के रूप में करते हैं। ऐसा मन जो इच्छाओं के अंत के कारण पूर्ण स्पष्टता और सुबोधगम्यता की स्थिति में पहुंच गया है। बुद्ध ने इसका वर्णन "मृत्युहीनता" (पाली: अमता या अमरावती)) तथा परम आध्यात्मिक ज्ञान, जो वह सहज परिणाम है जो सदाचारी जीवन व्यतीत करने और श्रेष्ठ आठ-सूत्रीय आदर्श पथ पर चलने पर मिलता है के रूप में किया है। ऐसे जीवन से कर्म (संस्कृत; पाली में कम्म पर नियंत्रण उत्पन्न होता है। इससे सकारात्मक परिणाम के साथ पूर्णरूप से कर्म का संचार होता है और अंत में कर्म की उत्पत्ति की समाप्ति होने लगती है जिससे निब्बाण की प्राप्ति होती है। अन्यथा, प्राणी सदैव के लिए इच्छाओं, आकार, निराकार के नश्वर क्षेत्र में पीड़ित हो सदैव भटकता रहता है, जिसे एकत्रित रूप से संसार कहते हैं।
प्रत्येक मुक्त व्यक्ति कोई नया कर्म नहीं करता, बल्कि अपने पूर्व कर्मों की धरोहर से उपजे अपने खास व्यक्तित्व को बचाए रखता है। अरहंत के बचे हुए जीवनकाल में एक मनोवैज्ञानिक-शारीरिक भाग शेष रहता है, इसी से कर्म का निरंतर प्रभाव दिखता है।
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