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🌹ॐ श्रीपरमात्मने नमः 🌹
अथ सप्तमोऽध्यायः
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा॥6॥
एतद्योनीनि=अपरा और परा इन दोनों प्रकृतियों के संयोग के कारण ही, भूतानि=भूतमात्रों, सर्वाणि=सम्पूर्ण, इति=ऐसा, उपधारय=समझो, अहम्=मैं, कृत्स्नस्य=सम्पूर्ण, जगतः= जगत् का, प्रभवः=प्रभव, प्रलयः=प्रलय हूँ, तथा=तथा।
भावार्थ- सम्पूर्ण भूतमात्रों के उत्पन्न होने में अपरा और परा इन दोनों प्रकृतियों का संयोग ही कारण है- ऐसा तुम समझो।
मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ अर्थात् सम्पूर्ण जगत् का मूल कारण हूँ।
व्याख्या--
"एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय"-
सम्पूर्ण भूतमात्र,जो भी पैदा हुआ है अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जितनी भी स्थावर-जंगम सृष्टि है, वह सब की सब अपरा और परा प्रकृति के संयोग से ही उत्पन्न होती है।
परा प्रकृति ने अपरा को अपना मान लिया, उसका संग कर लिया- इसको तुम धारण करो यानि ठीक- ठीक समझ लो।
"अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा"-
सम्पूर्ण जगत् का 'प्रभव' यानि उत्पत्ति। इस सम्पूर्ण सृष्टि को उत्पन्न करने वाली शक्ति भी मैं ही हूँ और 'प्रलय' यानि समाप्ति। इस सृष्टि को पूरी तरह से लीन करने की शक्ति भी मैं ही हूँ।
विशेष-
भगवान् कहते हैं कि मैं ही इस सृष्टि का निमित्त कारण हूँ और उपादान कारण भी मैं ही हूँ।
जैसे घड़ा मिट्टी से ही पैदा होता है, मिट्टी रूप ही रहता है और अंत में टूट कर मिट्टी ही हो जाता है। उसी प्रकार यह संसार भगवान् से ही उत्पन्न होता है, भगवान् में ही स्थित रहता है और भगवान् में ही लीन हो जाता है। ऐसा जानना ही 'ज्ञान' है। सब कुछ भगवत्स्वरूप है, भगवान् के सिवाय कुछ है ही नहीं- ऐसा अनुभव हो जाना 'विज्ञान' है।
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